झाबुआ के गांधी ने 'हलमा' से बदल दी झाबुआ की तस्वीर

तन पर धोती और एक सामान्य कपड़ा ,पीछे खड़ी झाबुआ के हजारों आदिवासियों की भीड़। वहीं आदिवासी जिन्होंने हलमा परंपरा के जरिए पूरे विश्व को ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने और आत्मनिर्भरता का पाठ सिखाया। जिस पर आईआईटी शोध करती है ,तो प्रधानमंत्री उसे दुनिया के लिए प्रेरणा बनाते है। उसी महान हलमा परंपरा में इन आदिवासियों का नेतृत्व करने और उन्हें सामूहिक श्रमदान की ताकत का अहसास दिलवाने वाले व्यक्ति का नाम है पद्म श्री महेश शर्मा। झाबुआ के गांधी के नाम से मशहूर महेश शर्मा का पूरा जीवन आदिवासी समाज के उत्थान और कल्याण की गाथा है। 
 

इसके अलावा, झाबुआ में सामाजिक उद्यमिता और कौशल विकास को बढ़ावा देने के लिए एक इन्क्यूबेशन सेंटर की शुरूआत भी की गई है। आईआईटी और टीआईएसएस जैसे संस्थानों की मदद से गांवों के युवाओं को उद्यम के बारे में और फिर उसके अनुरूप कौशल की ट्रेनिंग दी जाती है। जैसे कि बांस को निर्माण कार्य में कैसे उपयोग करें। गाँव के किसानों, युवाओं के साथ-साथ महिलाओं को भी कौशल विकास से जोड़ा गया है। उनमें भी उद्यमिता के गुरों का विकास किया जा रहा है। 

मध्यप्रदेश के दतिया जिले के घूघसी गाँव में जन्मे महेश शर्मा का शुरूआती जीवन कठिनाईयों भरा रहा। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद आगे पढ़ने के लिए उनके गाँव में कोई स्कूल नहीं था। इस कारण उन्हें गाँव छोड़कर दतिया शहर आना पड़ा। आर्थिक स्थिती खराब होने के कारण उनके पास कमरा किराये पर लेने के लिए भी पैसे नही थे,लेकिन फिर भी वे शहर आ गए। ऐसे में सत्यनारायण मंदिर के पूजारी से सुबह - शाम पूजा करने के बदले उन्हें वहाँ रहने की जगह मिल गई। इस तरह उन्होंने कक्षा 6 से 12 तक दतिया में ही रहकर पढ़ाई की।इस दौरान वे कई ऐसे लोगों के साथ रहें जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया था। उनके ऐसे ही शिक्षक से महेश काफी प्रभावित थे। ऐसे लोगों के साथ रहने का भी उन पर गहरा असर रहा। 12वी पास होने के बाद महेश ने ग्वालियर से अपना ग्रेजुएशन किया। उनके पिता चाहते थे कि महेश पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी करें। हालांकि ,उनकी रूचि समाजसेवा में थी। इसलिए उन्होंने ग्रेजुएशन के बाद पिता की इच्छा के विरूध्द राष्टीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने का फैसला किया। जबकि उनके घर वालों के अनुसार उन्हें उस वक्त सरकारी नौकरी आसानी से मिल सकती थी।  
 

आरएसएस के प्रचारक रहते हुए इन्हें सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान का संगठन मंत्री बनाया। 1998 में वनवासी कल्याण परिषद झाबुआ का महामंत्री बनाकर झाबुआ भेजा गया। तब से यह वहीं के होकर रह गए। उस समय झाबुआ और अलीराजपुर एक जिला हुआ करता था। यहाँ मुख्य रूप से भील जनजाति निवास करती थी। उस समय यह जनजाति समाज कुरितियों और अशिक्षा से जूझ रहा था । ऐसे में उन्होंने जनहित व जनजागरूकता के लिए अभियान चलाया। लोगों से उनकी मूलभूत सुविधा से वंचित रहने की वजह जानी। ग्रामीणों की परेशानियां एक-दूसरे से जुडी हुई थी और शर्मा ने एक समस्या के समाधान से शुरू करते हुए, हर एक परेशानी को हल करने की ठानी। उन्होंने सबसे पहले प्राकृतिक संसाधन जैसे कि जल के संरक्षण पर काम किया। उन्होंने देखा कि ये लोग मेहनतकश हैं और सबसे बड़ी बात, साथ मिलकर काम करने की ताकत रखते है। उन्होंने अपने स्तर पर पारा (झाबुआ) आसपास के कई गांवों के लोगों को तालाब की तकनीक समझाने वाले शिक्षकों से जोड़ा। सबसे पहले गाँव के लोगों ने तालाब की तकनीक को समझा और फिर शुरू हुआ तालाब बनाने का काम।  
 

इसके बाद महेश शर्मा ने झाबुआ में रहकर ही काम करने की ठानी और यहां के सभी गांवों से जुड़ना शुरू किया। साल 2007 में उन्होंने शिवगंगा संगठन की नींव रखी, जिसका उद्देश्य है ‘विकास का जतन’! उन्होंने ग्राम सशक्तिकरण की पहल की, जिसके ज़रिए गाँव के युवाओं को अपने गाँव के दुखों को समझने और फिर उनका हल ढूंढने के लिए प्रेरित किया जाता है। शर्मा ने इन युवाओं में उनके पूर्वजों यानी भीलों की परम्परा ‘हलमा’ को एक बार फिर से पुनर्जीवित किया। ‘हलमा’ का अर्थ होता है सभी का मिल-जुलकर गाँव के लिए काम करना। परमार्थ के भाव से एक-दूसरे को संकट से उबारना ही हलमा है। 

गांवों को एक साथ एक मंच पर लाने के लिए शिवगंगा संगठन के जरिये उन्होंने ‘संवर्धन से समृद्धि’ की शुरुआत की। इसके ज़रिए उन्होंने जल, जंगल, ज़मीन, जानवर और जन के लिए काम किया। इसके तहत वे अब तक उन्होंने 70 से अधिक तालाब बनाए हैं और 1 लाख से ज्यादा ट्रेंचेस/नाले बनाए हैं जिनकी सहायता से 400 करोड़ लीटर से भी ज्यादा पानी बचाया जा रहा है।इसके साथ ही उन्होंने जंगल संवर्धन की भी शुरुआत की। इस पहल के ज़रिए उन्होंने भीलों की ‘मातावन’ लगाने की परम्परा को फिर से अस्तित्व दिया है। उन्होंने हर एक गाँव को प्रेरित किया कि वह अपने गाँव में एक जंगल विकसित करें। इस तरह से अब तक ये ग्रामीण 600 गांवों में 70 हज़ार पौधरोपण कर चुके हैं और यह प्रक्रिया लगातार जारी है।ऐसे ही जमीन संवर्धन के जरिये ज़मीन को एक बार फिर उपजाऊ और पोषण से भरपूर करने के लिए किसानों को जैविक खेती से जोड़ने पर उनका खासा जोर रहा। जिस कारण पिछले 10 –12 वर्षों में जैविक खेती करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी।  

इसके अलावा, झाबुआ में सामाजिक उद्यमिता और कौशल विकास को बढ़ावा देने के लिए एक इन्क्यूबेशन सेंटर की शुरूआत भी की गई है। आईआईटी और टीआईएसएस जैसे संस्थानों की मदद से गांवों के युवाओं को उद्यम के बारे में और फिर उसके अनुरूप कौशल की ट्रेनिंग दी जाती है। जैसे कि बांस को निर्माण कार्य में कैसे उपयोग करें। गाँव के किसानों, युवाओं के साथ-साथ महिलाओं को भी कौशल विकास से जोड़ा गया है। उनमें भी उद्यमिता के गुरों का विकास किया जा रहा है।

आदिवासियों के इसी उत्थान और कल्याण के लिए महेश शर्मा को 2019 में पद्मश्री से नवाजा गया। आज उनके और शिवगंगा के कामों को समझने के लिए देशभर से आईआईटी ,आईआईएम के छात्र शोध और इंन्टर्नशिप करने के लिए झाबुआ आते है। आज देशभर में प्रसिध्द महेश शर्मा महात्मा गांधी की तरह ही आम जीवन जीते है। प्रकृति की गोद में बने अपने शिवगंगा के आश्रम में रहते हुए वे खुद के द्वारा जैविक खेती से उगाई सब्जियों और अन्न का इस्तेमाल करते है। आज भी हमेशा की तरह सामान्य धोती और बदन ढ़कने एक कपडे़ का प्रयोग करते है। अपने पैतृक गाँव को छोड़ अब वे पूरी तरह झाबुआ और जनजाति समाज के हो चुके है। उनके इस सेवाभाव और अथक प्रयास से कई आईआईटी और आईआईएम के छात्र भी अब उनके साथ झाबुआ में रहकर हलमा परंपरा से लेकर जल ,जंगल और जमीन के संवर्धन में उनके लक्ष्य की तरफ तेजी से अग्रसर हो रहे है।  

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Ritik Nayak

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