तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को लेकर हफ्ते भर से चल रहे थ्रीलर से जब पर्दा उठा तो नेता से लेकर जनता सब चौंके नजर आए। इस तरह चौंकाने की भाजपा की पद्धति कोई नई नहीं है। चाहे गुजरात में दिग्गज नेताओं की जगह जीवन में एक भी चुनाव न लड़ने वाले नरेन्द्र मोदी की बात हो या हरियाणा में मनोहर खट्टर की। ऐसे कई उदाहरण भाजपा के राजनैतिक इतिहास में मिल जाएंगे। तो चलिए समझने का प्रयास करते है कि आखिर तीनों राज्यों में अनुभवी व दिग्गज नेताओं की जगह नए और चौंकाने वाले चेहरों को चुनने के पीछे क्या रणनीति हो सकती है।
राजनैतिक गलियारों में यह चर्चा सबसे आम है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व राज्यों में अब ऐसे लोगों को शीर्ष पदों पर चाहता है जो आसानी से उनके कंट्रोल में रहे। उनकी कठपुतली बनकर कार्य करें। राजनीति में बेशक दूसरे दलों के साथ -साथ अपनी पार्टी में भी लगातार एक दुसरे से आगे निकलने की होड़ लगी ही रहती है। ऐसे में लाज़मी है कि भाजपा में भी यह सारी चीजे चल रही है। इसके लिए लोग नितिन गड़करी और शिवराज सिंह चौहान को संसदीय दल से बाहर रखने का उदहारण भी देते है। माना जाता है कि यह उन कुछ नेताओं में से है जिनकी लोकप्रियता भाजपा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जितनी या उनके बाद दूसरे नंबर पर है। ऐसे में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विदाई लोगे के मन में इस बात को गहरा करती नजर आती है। वही छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी अनुभवी रमन सिंह और वसुंधरां राजे की छुट्टी को राजनैतिक पंडित इसी रूप में देखते है। चुनाव प्रचार के दौरान शिवराज का नाम न लेने से लेकर कैलाश विजयवर्गीय जैसे का लाडली लक्ष्मी योजना को जीत की वजह मानने से इंकार भी ऐसी ही तस्वीर पेश करता है।
दूसरी तरफ अब से कुछ महीनों में होने वाले लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के जाति जनगणना की भी यह काट भाजपा को करना जरूरी था। ऐसे में छत्तीसगढ़ में आदिवासी , मप्र में ओबीसी और राजस्थान में सामान्य वर्ग से मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने सभी वर्गों को साधने की पूरी रणनीति तैयार कर ली है। इसके अलावा मध्यप्रदेश में जगदीश देवड़ा ,राजस्थान में प्रेमचंद बैरवा के रूप में दलित उपमुख्यमंत्री और दीया कुमारी के जरिये बाकी बचे समीकरण भी पूरे करने में भाजपा सफल होती नजर आ रही है।भाजपा ने अपने हिंदु वोट बैंक को जाति में बंटने से बचाने के इस सोशल इंजिनयरिंग का सहारा लिया है।
इसका तीसरा पहलू यह भी नजर आता है कि अब भाजपा अगले 20 सालों के लिए नए नेतृत्व को तैयार करने में जुट गया है। ऐसे में भाजपा अब इस तरह के नए प्रयोग कर एक नया लीडरशीप ग्रुप बनाने में जुटा है। चुंकि संघ के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वह सालों में नहीं दशकों में सोचता है ,ऐसे में भाजपा की इस रणनीति में दूर भविष्य की तैयारी भी एक बड़ा कारण हो सकती है। चूंकि भाजपा के पास फिलहाल अलग -अलग राज्यों में कई प्रभावशाली और अनुभवी चेहरे है तो वे ऐसे प्रयोग करने में समर्थ भी नजर आती है।
बहरहाल, यह देखना अभी भी दिलचस्प होगा कि यह प्रयोग कितना सफल होता है। भाजपा कैसे अब इन दिग्गजों को संभालती है। 2024 में इनसे किस तरह योगदान लिया जाएगा यह बड़ा सवाल है। हालांकि,भाजपा के लिए एक बड़ा फायदा उनके नेताओं में संघ की नर्सरी से पनपा अनुशासन है। कई नेताओं ने जरूर अपने स्तर से घोषणा के पहले गद्दी पाने का पूरा प्रयास किया। लेकिन जिस तरह से तीनों राज्यों में सारे बड़े व दिग्गज नेताओं ने पार्टी के फैसले को सहजता से स्वीकारा, वह अपने आप में अनुशासन और संगठन की पकड़ की ऩजीर पेश करता है। वरना कई बार इस तरह के मामलों में पार्टी में फूट आसानी से देखने को मिल जाती है।
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